Dinesh Singh is my friend on the bhojpuri network and he has provided this detail so thought of sharing with you all~
प्रख्यात कवि हरिवंश राय बच्चन के जन्मदिन पर शनिवार को जब मुंबई के भारतीय विद्या भवन में मधुशाला की कॉफी टेबुल बुक का विमोचन हो रहा होगा तो काशी के जेहन में वर्ष 1933 की ठिठुरती दिसंबरी रात की यादें सहज ही जीवित हो जाएंगी। यह भी स्मरण हो आएगा कि काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के शिवाजी हॉल में एक सामान्य कद-काठी के व्यक्ति ने किस तरह युवाओं को अपना दीवाना बना दिया था। अपनी कालजयी रचना मधुशाला के औपचारिक उद्घाटन यानी पहली बार मंच से प्रस्तुति के इस अवसर पर उपस्थित लोगों को शायद इस बात का तनिक भी भान नहीं रहा होगा कि वे जिस घड़ी को जी रहे हैं, वह इतिहास के विस्तृत आकाश पर ध्रुव समान चमकेगा। तब के जवान अब के वयोवृद्ध स्मृति पटल पर जोर देते हुए रोमांच से भर उठते हैं कि किस तरह मधुशाला की हर पंक्ति पर तालियां बजतीं और लोग सुर से सुर मिलाते। लय के साथ मधुशाला का पाठ करते। बच्चनजी का व्यक्तित्व आकर्षण का केंद्र भी था। बाकी कवियों की रचनाएं उनके आगे फीकी पड़ गई थीं। कइयों को तो श्रोताओं ने हूट करके मंच से लौटा दिया। उस कवि सम्मेलन की अध्यक्षता करनेवाले प्रो. मनोरंजन प्रसाद सिनहा ने एक जगह अपने संस्मरण में लिखा - उस शाम बच्चन को सुनकर नवयुवक पागल हो रहे थे। पागल मैं भी हो रहा था किंतु वह पागलपन इस प्रकार का न रहा- यह गिलहरी कुछ दूसरा ही रंग लाई और वह रंग प्रकट हुआ दूसरे दिन के कवि सम्मेलन में जो केवल मधुशाला का सम्मेलन था, बच्चन का और मेरा सम्मेलन था। मधुशाला सर्वप्रथम कवि सम्मेलन- केवल मधुशाला का। बच्चन ने अपनी अनेकानेक रूबाइयां सुनाई थीं और मैंने केवल आठ। बच्चन आदि और अंत में थे और मैं था मध्य में, इंटरवल में। जब सुनते-सुनाते थक से गए थे तो शीशे के गिलास में सादे पानी से गले की खुश्की मिटा रहे थे। मधुशाला का असर क्या था? श्री सिनहा लिखते हैं कि आर्ट्स कॉलेज के उस हाल में जो कॉलेज भवन की दूसरी मंजिल पर ठीक जीने के पास अवस्थित है, जमकर सभा हुई। कहीं तिलभर जगह नहीं थी। कमरे का कोना-कोना तो भरा ही था। बाहर दरवाजों के सामने भी अनेकानेक विद्यार्थी थे। बच्चनजी ने कविता पाठ शुरू किया, लड़के झूमने लगे। सभी आत्मविभोर से थे। इस यादगार सम्मेलन के कुछ खास पलों को याद करते हुए नरेंद्र शर्मा लिखते हैं कि बच्चन ने अप्रकाशित मधुशाला का पाठ शुरू किया। सार्वजनिक रूप में यह मधुशाला का प्रथम काव्यपाठ था। श्रोताओं पर एक बार गहरी निस्तब्धता छा गई। कुछ क्षणों को शायद सांस लेना ही सब भूल गए और प्रशंसा का बांध एकाएक टूट गया। वातावरण पर ऐसा जादू छा गया कि वाह-वाह और तालियों की गड़गड़ाहट भी प्रशंसा के गहरे समुद्र और ऊंचे आकाश में न कुछ जैसी लगती थी। कवि सम्मेलन के उन लम्हों ने बच्चों को उस जमाने की युवा पीढ़ी का हीरो बना दिया। क्रेज की ऐसी लहर चली जिसकी कल्पना आज के दौर के बड़े-बड़े स्टार नहीं कर सकते। मधुशाला की काफी टेबुल बुक की खासियत यह भी होगी कि उसमें बच्चनजी की पौत्री नम्रता के रेखांकन और कविताओं के अंग्रेजी सार भी रहेंगे। एक लोकप्रिय कृति की अनोखी प्रस्तुति बच्चनजी के जन्मदिन के अगले दिन इसलिए की जा रही है कि खुद अमिताभ बच्चन बिग बॉस के अपने शो के व्यावसायिक अनुबंध के प्रतिबंध में फंसे हैं। बहरहाल, इस मौके पर अमिताभ बच्चन वाराणसी से जुड़ी पिता की यादों को याद करें न करें लेकिन काशी तो जरूर याद करेगी। साथ ही बच्चनजी की प्रथम प्रस्तुति को भी। बच्चन परिवार व वाराणसी के लिए 27 नवंबर का दिन इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि दो साल पहले यानी 2007 में हरिवंश राय बच्चन की सौवीं जयंती पर पूरा परिवार यहां जुटा था। तब विवाह से पहले ही ऐश्वर्या भी उनके साथ थीं।
With love and warm regards,
Manoj Kumar Ojha
manoj ji bahut rochak prasang. jankar parkar maja aa gaya. aapko aur aapke dost ko anant badhaiyan.
ReplyDeleteRegards,
Ashutosh
journalist. new delhi.